12.10.10

आओ बेइज़्ज़ती करायें!!


"चचा बहुत फुर्सत में हूँ, क्या करूँ?" चचा के ऑफिस में घुसते ही मैंने पूछा. "अरे आओ छोटे! हमेशा की तरह फिर फुर्सत में हो?" चचा हँसते हुए बोले. आदमी खुद फुर्सत में रहे, जिसे आजकल "फ्री" रहना कहते हैं तो बुरा नहीं लगता लेकिन कोई कहता है की "फ्री" हो क्या तो लगता है गाली दे दी. उस "फ्री" पर लगे कंडीशन एप्लाई के स्टार का मतलब निकम्मे, नाकारे, निखट्टू और फालतू सुनाई देने लगता है. आम आदमी फ्री बैठे तो कहा जाता है अबे कुछ करता क्यों नहीं, फ्री बैठा है. और यहाँ कितनी सरकारें और अधिकारी "फ्री" बैठ कर चले जाते हैं उनसे कोई कुछ नहीं कहता. खैर फिलहाल मैं फुर्सत में था और चचा ने भी सही कहा था 'हमेशा की तरह'. तो इस "हमेशा" को अनसुना कर मैंने कहा," हाँ चचा कुछ सूझ ही नहीं रहा है, इस बार कुछ अलग करने का इरादा है.". चचा बोले, "हम्म अलग. एक काम कर तू "मशहूर" हो जा." "मशहूर!! मशहूर होना भी कोई काम  है?" मैंने चचा से पूछा. चचा ने टेबल पर हाथ पटकते हुए कहा, "और क्या! अबे आजकल सबसे आसान काम मशहूर होना हो गया है और फुरसती आदमी के लिए तो इससे अच्छा और आसान कोई काम नहीं."

चचा के इस अटपटे सुझाव को सुन लगा की चचा भी फुरसती आदमी का मजाक उड़ाने लगे. फिर भी मैंने पूछा "पर चचा कैसे?" चचा बोले," अरे छोटे बहुत आसान है. अच्छा पहले ये बताओ तुम्हारे पास कोई टेलेंट है?" "अरे चचा अब सीने पर पत्थर तोडना और मर्द हो के औरतों का डांस करना भी टेलेंट है तो मुझमें भी कुछ न कुछ तो होगा."  "हम्म, अच्छा ये बताओ की तुम स्वाभिमानी हो?" मैंने जवाब दिया,"हाँ चचा एकाध गाली सुन लेता हूँ, लेकिन उसके बाद स्वाभिमान जाग जाता है." चचा कुछ और निराश से हो गए. बोले," चलो  अच्छा अपनी इज्ज़त प्यारी है?" "अब चचा अपने लोग थोड़ी बहुत बेइज़्ज़ती करें तो चलता है, पर पब्लिक प्लेस पर तो इज्ज़त प्यारी है". अबकी बार चचा ने गहरी सांस छोड़ी, "चलो ये बताओ की तुम क्या सिद्धांतवादी हो?". मैंने जवाब दिया," चचा अब थोडा बहुत सिद्धांतवादी तो हर कोई होता है!" चचा ने अपना सिर पीट लिया ."भैये तू तो कतई मशहूर नहीं हो सकता." "क्यों चचा?". चचा मेरे पास आ गए," एक तो तुम टेलेंटेड हो, फिर स्वाभिमानी भी, सिद्धांतवादी भी और ऊपर से अपनी बेइज़्ज़ती भी नहीं करा सकते." मैं चौंक गया, "चचा मैं समझा नहीं". "अबे क्या नहीं समझा?". "मतलब चचा मशहूर होने के लिए ये सब नहीं चाहिए तो क्या चाहिए?" चचा बोले,"" देख छोटे मशहूर होने का सबसे आसान तरीका है 'बेइज़्ज़ती', 'बदनामी'." मैंने कहा," कैसे चचा? मतलब मशहूर होने के लिए तो आपमें कोई हुनर होना चाहिए, लगन होना चाहिए. हैं न?"चचा कुर्सी पैर बैठ कर शुरू हो गए,
" अबे छोटे किस ग्रह से आया है तू? अच्छा ये बता अपने मोहल्ले के वर्मा जी को जानते हो?"
"हाँ वही न जिनपर मर्डर का केस चल रहा है?"
"और बड़े बाज़ार के गुप्ता जी को?"
" हाँ वो तो रिश्वत लेते हुए पकडे गए थे."
"तो फिर मिसेज जरीवाला को भी जानते होगे, अमनगंज की?"
" वही न जिनके अफेयर के किस्से सुनते रहते हैं?"

"तो बेटा यही तो मैं कह रहा हूँ..की तुझे ये सब लोग इसलिए याद है क्योंकि इनकी कहीं न कहीं बेइज़्ज़ती हुई है. अरे छोटे, राखी सावंत क्या इसलिए प्रसिद्द है की वो अच्छा डांस करती है? कलमाड़ी क्या सिर्फ इसलिए जाना गया की वो कॉमनवेल्थ खेलों का अधिकारी था? ललित मोदी क्या अपनी इज्ज़त के लिए जाना जाता है? इमरान हाश्मी को लोग क्या उसके अभिनय के लिए जानते हैं? राहुल महाजन का नाम अब उसके पिता के कारण चलता है या बीवी को पीटने के लिए? अरे कॉमनवेल्थ में इतने लफड़े न होते तो मीडिया इतना फुटेज देती? अरे कभी टी.व्ही देखते हो? अच्छे कामों,अच्छी खबरों के लिए थोडा समय और बाकी समय ये समाचार चैनलें बदनाम लोगों की बेइज़्ज़ती के गुण गा गा कर उन्हें मशहूर करती रहती हैं, कोई भी रियलिटी शो देख लो. जो अपनी जितनी बेइज़्ज़ती कराता है उसे उतना ही दिखाया जाता है. कोई अपने प्रेमी को "एक्स" करा रहा है, तो कोई निजी जिंदगी को खुलेआम लाकर "अत्याचार" करवा रहा, तो कहीं ढेर सारे बदनाम लोगों पर एक "बॉस" नज़र रखे है. कुलमिलाकर सब बेइज़्ज़ती कर रहे हैं, करा रहे हैं और "मशहूर" हो रहे हैं. तो अगर तुझे मशहूर होना है तो कुछ ऐसा कर की तू बदनाम हो जाए, जा, जाकर किसी ऊँची इमारत पर चढ़ जा, ख़ुदकुशी की धमकी दे दे, जा किसी बड़े आदमी की लड़की को छेड़ दे, किसी बदनाम नेता का चेला हो जा, जा चौराहे पर जा के गालियाँ दे, नंगा हो जा या कोई विवादास्पद किताब लिख कर किसी को नंगा कर दे, जा अपनी इज्ज़त को मिटटी में मिला दे, जा बदनाम हो जा, जा बेइज्ज़त हो जा और "मशहूर" हो जा." गला फाड़ कर चचा चिल्लाये.

मैं काँप गया. घबराहट में कुछ न बोल सका. बेइज़्ज़ती का खौफ मुझे अन्दर तक हिला गया. मैं चुपचाप उठकर चचा के ऑफिस से बाहर सड़क पर आ गया. एकदम से लगा की मुझ पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. मुझे किसी ने नहीं देखा, किसी को फर्क नहीं पड़ता, मुझे लगा सब मुझ पर तभी ध्यान देंगे जब में बदनाम हो जाऊंगा, बेइज्ज़त हो जाऊंगा. पर कैसे? अपनी बेइज़्ज़ती कराने के लिए जो आत्मविश्वास चाहिए वो मुझमें नहीं है. इतना आत्मविश्वास जिसे देख आत्मविश्वास भी अपना आत्मविश्वास खो बैठे! अपनी बेज्ज़ती कराने के लिए ग़लतफहमी चाहिए. ये ग़लतफहमी की आप जो भी करें वो सही है. खैर अपने बारे में ग़लतफ़हमियाँ किसे नहीं होती. अब देखिये न मुझे ग़लतफहमी है की मैं लिख सकता हूँ. चलिए "फिलहाल" तो मुझे अपनी इज्ज़त प्यारी है तो मैं "मशहूर" नहीं हो सकता. ;-)

हमने वो कत्लेआम देखा.

इस रचना की प्रेरणा (click here)--
ख़ारिज़ रचनाएँ- By Lalit Kishore Gautam 


हर गली में कूचे में सुबह और शाम देखा,
जो तुमने देखा हमने भी सरेआम देखा.

इंसानियत कोने  में बैठी सिसकती देखी,
हमने दहशत को मिलता इनाम देखा.
मरने से पहले  तक  तो इंसान था वो,
सूरत-ए-मौत पर मज़हब का नाम देखा.
देखी  सड़कें  हमने  सुर्ख लाल होती,
हर एक मोड़ पर हमने शमशान देखा.
उन चेहरों  की  चढ़ती त्योरियां देखी,
जिनपे  था  कभी दुआ-सलाम देखा.
बेजुबानों को भी देखा दर्द समझते,
बेदिल  तो  हमने  बस  इंसान  देखा.
ग़म  तो  बस ये की कुछ कर न सके,
हमने चुपचाप ये किस्सा तमाम देखा.

जो तुमने देखा हमने भी सरेआम देखा.
हुआ गुनाह हमसे हमने वो कत्लेआम देखा.


-विनायक
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