26.2.11

पाखाना सभा


                      मुन्ना अब स्कूल नहीं जायेगा, चिंकी अब १२ की हो गयी है अब उसका ब्याह कर देंगे, गाँव की ज़मीन बेचकर अब शहर में दुकान खरीदना है. ये सारे अहम् फैसले यहीं लिए गए. इन्ही "पाखाना सभाओं" में. आप ब्रह्म मुहूर्त में किसी गाँव की तरफ या झुग्गीओं की तरफ निकल जाइये और आपको मल त्याग करते हुए कई ऐसे समूह मिल जायेंगे जो झाड़ियों, पेड़ों, मिटटी के ऊँचे टीलों के पीछे बैठकर ऐसे ही फैसले ले रहे होते हैं. यूं तो कब्ज़ से पीड़ित कोई संभ्रांत व्यक्ति भी चार बाई चार के कमरे में कुर्सीनुमा टॉयलेट सीट पर बैठकर अखबार पढ़ते हुए कई फैसले ले रहा होता है. जैसे की आज ऑफिस कपड़े कौन से पहन जाना है या शाम को डिनर कहाँ करना है या फार्म हाउस पर पार्टी कब करनी है आदि. पर ये फैसले उतने अहम् नहीं होते और फ्लश के साथ बह जाते हैं. पर जो फैसले इन पाखाना सभाओं में लिए जाते हैं वे बड़े महत्वपूर्ण होते हैं. यहाँ ज़मीन-जायदाद से लेकर जिंदगियों के फैसले तक हो जाया करते हैं. और हर उम्र वर्ग का व्यक्ति यहाँ फैसले ले लिया करता है. बड़े बूढ़े घरों के फैसले, औरतें गृहस्थी के फैसले और बच्चे मैच तय करने और मास्टर जी को परेशान करने के फैसले यहीं लिया करते हैं.
                  गाँव की तयशुदा दिनचर्या के चलते एक ही वक़्त पर कई लोग इकठ्ठे हो जाते हैं और कई बार "बैठेने" की जगह के मसले पर लड़ बैठते हैं. और एक दूसरे के खेत में बैठने के विवाद से बचने के लिए अक्सर पास पास ही बैठ जाया करते हैं जिससे बात करने में भी सुभीता रहता है. और जब चार समझदार लोग साथ "बैठ" जाते हैं तो कुछ फैसले हो ही जाया करते हैं. यूं तो कहीं भी कुछ लोगों के इक्कठा होने पर सरकारें घबरा जाती हैं पर सरकार का अब तक इस सभाओं पर ध्यान नहीं गया था.
                  पर इस बार कुछ अलग हो गया. जब से एक कद्दावर नेता ने अपना "टेस्ट" बदलने गाँव में जाकर दलितों और गरीबों के यहाँ जाकर खाना और सोना शुरू किया है तब से कई नेता जनता को "इम्प्रेस" करने के लिए गाँव के चक्कर काटने  लगे हैं. इसी सिलसिले में जोगीलाल जी भी गए थे. बात खाने पीने तक तो ठीक थी पर उन्हें रात में रुकने की चिंता सता रही थी. उन्हें आदत थी "गले को तर" कर के ए.सी. की ठंडी हवा में सोने की. तो उन्होंने तय किया की वे "फॉर अ चेंज" के नाम पर रुक जाते हैं और सुबह सुबह ही यहाँ से निकल जायेंगे. रात भर करवटें बदलने के बाद जोगीलाल जी ब्रह्म मुहूर्त में निकले.खेतों के पास से जब उनकी लाल बत्ती वाली कार गुज़र रही थी तो उन्होंने एक अद्भुत नज़ारा देखा. दूर दूर तक झाड़ियाँ फैली हुयी हैं और उनके बीच में कहीं कहीं कुछ सिर दिखाई दे रहे हैं.ऐसे जैसे युद्ध के दौरान दुश्मन पर घात लगाने के लिए छिप कर बैठ जाते हैं. उन्होंने अपने ड्राईवर से पुछा," क्यूँ रे सुखिया ये यहाँ इतने लोग झाड़ियों में छिपे क्यों बैठे हैं?". "अरे साहब ये सब टट्टी कर रहे हैं", सुखिया ने जवाब दिया. जोगीलाल जी ने गाडी रोकने को कहा. गाडी से उतर कर वे ज़रा नज़दीक गए. उन्होंने देखा की चारों ओर झाड़ियों, पेड़ों, टीलों के पीछे लोग बैठे हैं और कुछ आपस में बात भी कर रहे हैं. सुखिया से पूछने पर उन्हें पता चला की लोगों के लिए मिलने का और फैसले लेना का यह एक महत्वपूर्ण स्थान है. पहले तो वे घबराए की यहाँ सरकार के खिलाफ साजिशें तो नहीं रची जाती पर जब उन्हें पता चला की गाँव वाले यहाँ अपनी गरीबी, परेशानी और जिंदगी से जुड़े फैसले लेते हैं तो उन्हें राहत महसूस हुयी.और वे अपने सरकारी आवास पर लौट आये.
                          जोगीलाल जी घर तो आ गए पर उनके मन में पाखाना रह गया. उन्होंने तुरंत अपने कुछ चमचों को गाँव भेज कर गाँव वालों के साथ मल त्याग करने और सर्वे करने का आदेश दिया. उस सर्वे के तथ्यों और कुछ अपने विचारों को  मिलाकर उन्होंने एक प्रस्ताव तैयार कर पार्टी को भेजा. ये प्रस्ताव नीचे दिया जा रहा है-
                   पिछले दिनों मैं एक गाँव की यात्रा पर गया और वहां एक नए किस्म की सभा देखी जो मुझे राष्ट्रहित और पार्टीहित के लिए उपयोगी जान पड़ती है. ये पाखाना सभायें निम्लिखित तरीकों से उपयोगी हैं-
1. खुली जगह और खुला वातावरण होने के कारण यहाँ सभायें आयोजित करना लाभकारी है और इससे पार्टी का सभायें आयोजित करने में होने वाला खर्च बचेगा.
2. इन सभाओं जब गाँव वाले ज़मीन-जायदाद के फैसले ले लेते हैं तो हम देश के फैसले क्यों नहीं ले सकते?
3. संसद आदि जगहों पर हमे गाली-गलोज से परहेज करना होता है पर इन सभाओं में कोई हदें नहीं होंगी.
4. इन सभाओं में हम ऐसा "काम" कर रहे होंगे जिसमे हम उठ भी नहीं सकते इस कारण हाथापाई की नौबत नहीं आएगी.
5.इस सभा में हमे झाड़ियों, टीलों आदि के पीछे छिपना होगा जिससे हम मीडिया के सीधी नज़रों से बच सकते हैं और कई ऐसे काम कर सकते हैं जो खुलेआम मुमकिन नहीं हैं.
6. ये साभायें खेतों में गाँव वालों के साथ होंगी जिससे हमे जनता से सीधे जुड़ने का मौका मिलेगा यानि वोट बैंक में इजाफा.
7. गाँव वालों के अनुसार वे सारे अहम् फैसले इसलिए ले पाते हैं क्योंकि वो "प्रेशर" में होते हैं. इसी तरह हमारी भी दबाव में फैसले लेने की क्षमता बढ़ेगी.


          जोगीलाल जी का ये प्रस्ताव विचाराधीन है.मतलब जनता से जुड़ने के सारे उपायों के बाद अब ये पाखाने में पहुँच गए हैं. मतलब जनता शांति से अब मल त्याग भी नहीं कर सकती.
             फिलहाल बहरहाल जोगीलाल जी ने ये प्रस्ताव पार्टी को भेज दिया है और उनका इरादा इसे संसद तक पहुंचाने का है.और मैं सोचता हूँ की वैसे भी आजकल की सभायें और संसद किसी पाखाना सभा से कम नहीं होती. वही गंदगी, वही सडांध और पाखाने में तब्दील होता देश!!

24.2.11

एक नया रुआब दूंगा


कुछ खुशियाँ कुछ उम्मीदें कुछ ख्वाब दूंगा.
जिंदगी को अपनी मैं एक नया रुआब दूंगा.

न तुम मुझे पहचान पाओगे न मैं खुद,
अब  मैं  खुद  को ऐसा  नकाब  दूंगा.

सियासतदार से जो मैंने माँगा सुकून,
वो बोला मैं बस ज़हर दूंगा तेजाब दूंगा.

न पूछो कोई सवाल जानता हूँ सारे,
जब होगा जवाब  तो मैं जवाब दूंगा.

मांग लिया है दुनिया से वक़्त इतना,
अब मैं किस  किस  को हिसाब दूंगा.

अब न घुटने छिलेंगे न आँखें नम होंगी,
मैं उस  बच्ची के  हाथों में किताब दूंगा.

-विनायक

12.10.10

आओ बेइज़्ज़ती करायें!!


"चचा बहुत फुर्सत में हूँ, क्या करूँ?" चचा के ऑफिस में घुसते ही मैंने पूछा. "अरे आओ छोटे! हमेशा की तरह फिर फुर्सत में हो?" चचा हँसते हुए बोले. आदमी खुद फुर्सत में रहे, जिसे आजकल "फ्री" रहना कहते हैं तो बुरा नहीं लगता लेकिन कोई कहता है की "फ्री" हो क्या तो लगता है गाली दे दी. उस "फ्री" पर लगे कंडीशन एप्लाई के स्टार का मतलब निकम्मे, नाकारे, निखट्टू और फालतू सुनाई देने लगता है. आम आदमी फ्री बैठे तो कहा जाता है अबे कुछ करता क्यों नहीं, फ्री बैठा है. और यहाँ कितनी सरकारें और अधिकारी "फ्री" बैठ कर चले जाते हैं उनसे कोई कुछ नहीं कहता. खैर फिलहाल मैं फुर्सत में था और चचा ने भी सही कहा था 'हमेशा की तरह'. तो इस "हमेशा" को अनसुना कर मैंने कहा," हाँ चचा कुछ सूझ ही नहीं रहा है, इस बार कुछ अलग करने का इरादा है.". चचा बोले, "हम्म अलग. एक काम कर तू "मशहूर" हो जा." "मशहूर!! मशहूर होना भी कोई काम  है?" मैंने चचा से पूछा. चचा ने टेबल पर हाथ पटकते हुए कहा, "और क्या! अबे आजकल सबसे आसान काम मशहूर होना हो गया है और फुरसती आदमी के लिए तो इससे अच्छा और आसान कोई काम नहीं."

चचा के इस अटपटे सुझाव को सुन लगा की चचा भी फुरसती आदमी का मजाक उड़ाने लगे. फिर भी मैंने पूछा "पर चचा कैसे?" चचा बोले," अरे छोटे बहुत आसान है. अच्छा पहले ये बताओ तुम्हारे पास कोई टेलेंट है?" "अरे चचा अब सीने पर पत्थर तोडना और मर्द हो के औरतों का डांस करना भी टेलेंट है तो मुझमें भी कुछ न कुछ तो होगा."  "हम्म, अच्छा ये बताओ की तुम स्वाभिमानी हो?" मैंने जवाब दिया,"हाँ चचा एकाध गाली सुन लेता हूँ, लेकिन उसके बाद स्वाभिमान जाग जाता है." चचा कुछ और निराश से हो गए. बोले," चलो  अच्छा अपनी इज्ज़त प्यारी है?" "अब चचा अपने लोग थोड़ी बहुत बेइज़्ज़ती करें तो चलता है, पर पब्लिक प्लेस पर तो इज्ज़त प्यारी है". अबकी बार चचा ने गहरी सांस छोड़ी, "चलो ये बताओ की तुम क्या सिद्धांतवादी हो?". मैंने जवाब दिया," चचा अब थोडा बहुत सिद्धांतवादी तो हर कोई होता है!" चचा ने अपना सिर पीट लिया ."भैये तू तो कतई मशहूर नहीं हो सकता." "क्यों चचा?". चचा मेरे पास आ गए," एक तो तुम टेलेंटेड हो, फिर स्वाभिमानी भी, सिद्धांतवादी भी और ऊपर से अपनी बेइज़्ज़ती भी नहीं करा सकते." मैं चौंक गया, "चचा मैं समझा नहीं". "अबे क्या नहीं समझा?". "मतलब चचा मशहूर होने के लिए ये सब नहीं चाहिए तो क्या चाहिए?" चचा बोले,"" देख छोटे मशहूर होने का सबसे आसान तरीका है 'बेइज़्ज़ती', 'बदनामी'." मैंने कहा," कैसे चचा? मतलब मशहूर होने के लिए तो आपमें कोई हुनर होना चाहिए, लगन होना चाहिए. हैं न?"चचा कुर्सी पैर बैठ कर शुरू हो गए,
" अबे छोटे किस ग्रह से आया है तू? अच्छा ये बता अपने मोहल्ले के वर्मा जी को जानते हो?"
"हाँ वही न जिनपर मर्डर का केस चल रहा है?"
"और बड़े बाज़ार के गुप्ता जी को?"
" हाँ वो तो रिश्वत लेते हुए पकडे गए थे."
"तो फिर मिसेज जरीवाला को भी जानते होगे, अमनगंज की?"
" वही न जिनके अफेयर के किस्से सुनते रहते हैं?"

"तो बेटा यही तो मैं कह रहा हूँ..की तुझे ये सब लोग इसलिए याद है क्योंकि इनकी कहीं न कहीं बेइज़्ज़ती हुई है. अरे छोटे, राखी सावंत क्या इसलिए प्रसिद्द है की वो अच्छा डांस करती है? कलमाड़ी क्या सिर्फ इसलिए जाना गया की वो कॉमनवेल्थ खेलों का अधिकारी था? ललित मोदी क्या अपनी इज्ज़त के लिए जाना जाता है? इमरान हाश्मी को लोग क्या उसके अभिनय के लिए जानते हैं? राहुल महाजन का नाम अब उसके पिता के कारण चलता है या बीवी को पीटने के लिए? अरे कॉमनवेल्थ में इतने लफड़े न होते तो मीडिया इतना फुटेज देती? अरे कभी टी.व्ही देखते हो? अच्छे कामों,अच्छी खबरों के लिए थोडा समय और बाकी समय ये समाचार चैनलें बदनाम लोगों की बेइज़्ज़ती के गुण गा गा कर उन्हें मशहूर करती रहती हैं, कोई भी रियलिटी शो देख लो. जो अपनी जितनी बेइज़्ज़ती कराता है उसे उतना ही दिखाया जाता है. कोई अपने प्रेमी को "एक्स" करा रहा है, तो कोई निजी जिंदगी को खुलेआम लाकर "अत्याचार" करवा रहा, तो कहीं ढेर सारे बदनाम लोगों पर एक "बॉस" नज़र रखे है. कुलमिलाकर सब बेइज़्ज़ती कर रहे हैं, करा रहे हैं और "मशहूर" हो रहे हैं. तो अगर तुझे मशहूर होना है तो कुछ ऐसा कर की तू बदनाम हो जाए, जा, जाकर किसी ऊँची इमारत पर चढ़ जा, ख़ुदकुशी की धमकी दे दे, जा किसी बड़े आदमी की लड़की को छेड़ दे, किसी बदनाम नेता का चेला हो जा, जा चौराहे पर जा के गालियाँ दे, नंगा हो जा या कोई विवादास्पद किताब लिख कर किसी को नंगा कर दे, जा अपनी इज्ज़त को मिटटी में मिला दे, जा बदनाम हो जा, जा बेइज्ज़त हो जा और "मशहूर" हो जा." गला फाड़ कर चचा चिल्लाये.

मैं काँप गया. घबराहट में कुछ न बोल सका. बेइज़्ज़ती का खौफ मुझे अन्दर तक हिला गया. मैं चुपचाप उठकर चचा के ऑफिस से बाहर सड़क पर आ गया. एकदम से लगा की मुझ पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है. मुझे किसी ने नहीं देखा, किसी को फर्क नहीं पड़ता, मुझे लगा सब मुझ पर तभी ध्यान देंगे जब में बदनाम हो जाऊंगा, बेइज्ज़त हो जाऊंगा. पर कैसे? अपनी बेइज़्ज़ती कराने के लिए जो आत्मविश्वास चाहिए वो मुझमें नहीं है. इतना आत्मविश्वास जिसे देख आत्मविश्वास भी अपना आत्मविश्वास खो बैठे! अपनी बेज्ज़ती कराने के लिए ग़लतफहमी चाहिए. ये ग़लतफहमी की आप जो भी करें वो सही है. खैर अपने बारे में ग़लतफ़हमियाँ किसे नहीं होती. अब देखिये न मुझे ग़लतफहमी है की मैं लिख सकता हूँ. चलिए "फिलहाल" तो मुझे अपनी इज्ज़त प्यारी है तो मैं "मशहूर" नहीं हो सकता. ;-)

हमने वो कत्लेआम देखा.

इस रचना की प्रेरणा (click here)--
ख़ारिज़ रचनाएँ- By Lalit Kishore Gautam 


हर गली में कूचे में सुबह और शाम देखा,
जो तुमने देखा हमने भी सरेआम देखा.

इंसानियत कोने  में बैठी सिसकती देखी,
हमने दहशत को मिलता इनाम देखा.
मरने से पहले  तक  तो इंसान था वो,
सूरत-ए-मौत पर मज़हब का नाम देखा.
देखी  सड़कें  हमने  सुर्ख लाल होती,
हर एक मोड़ पर हमने शमशान देखा.
उन चेहरों  की  चढ़ती त्योरियां देखी,
जिनपे  था  कभी दुआ-सलाम देखा.
बेजुबानों को भी देखा दर्द समझते,
बेदिल  तो  हमने  बस  इंसान  देखा.
ग़म  तो  बस ये की कुछ कर न सके,
हमने चुपचाप ये किस्सा तमाम देखा.

जो तुमने देखा हमने भी सरेआम देखा.
हुआ गुनाह हमसे हमने वो कत्लेआम देखा.


-विनायक

15.9.10

गणपति की घुटन- एक ख़त भगवान का

(ये इस ब्लॉग की पहली प्रविष्टि है तो सोचा इसे भगवान गणेश को समर्पित करूँ.... ।। श्री गणेशाय नमः ।।  )

गणपति भगवान कितना  खुश होते होंगे न! गणेश चतुर्थी से दस दिन तक कितनी तवज्जो मिलती है उन्हें. अरे अपन को तो एक दिन इज्जत  मिल जाए तो दस साल याद रखें की सन 2010 में किसीने दो मिनट इज्जत से बात की थी. पर भगवान गणेश को तो हर साल दस दिन जमकर पूजा जाता है. हाँ बाकी दिन दुर्गा माँ, शनि महाराज, शिवजी आदि "कठिन" भगवानों को मनाने में लग जाते हैं. बात दरअसल ये है की कल एक ख़त मिला..भगवन गणेश का. उसपर उनका पता नहीं लिखा था! अब भगवान का पता किसे पता?मुझे ख़त लिखने का कारण यही समझ आया की भगवन ने सोचा होगा किसी "अपने" को ख़त लिखूं.और मेरा तो नाम ही "विनायक" है! मैं उनका न सही..पर नाम तो उनका अपना है. तो उस ख़त से भगवान गणेश का यही दर्द समझ आया की उन्हें कोई "seriously " नहीं ले रहा है. ये ख़त सभी "भक्तगणों" को संबोधित था तो आप सभी भक्तों के समक्ष प्रस्तुत है. 


प्रिय भक्तगणों,
                        मैं गणेश हूँ. भगवान शिव का पुत्र. मुझे आप गणपति, लम्बोदर, सिद्धिविनायक, गजानन आदि नामों से भी पुकारते हैं. जी हाँ मैं आपका वही भगवान हूँ जिसकी पूजा आप प्रथम पूज्यनीय बनाकर शुरू में ही निपटा देते हैं. क्यूंकि आपके पास और भी "भगवान" हैं खुश करने के लिए. हालांकि मैं बहुत आभारी हूँ आप लोगों का की हर वर्ष आप दस दिवसीय गणेशोत्सव मनाते हैं मेरे लिए. पर मेरी कुछ शिकायतें हैं आपसे. आप सभी मेरे पास तो आते रहते हैं अपनी शिकायत लेकर..कभी नौकरी की सिफारिश, दुश्मन से छुटकारा, कभी प्रेम का चक्कर आदि. पर इस बार कुछ मेरी शिकायतें सुनिए.


                    मैं आपसे पूछना चाहता हूँ की आप मुझे भगवान समझते भी हैं या नहीं?या आपने नए भगवान ढूंढ लिए हैं?कभी कभी लगता है की मैं एक मनोरंजन का साधन बन गया हूँ. मंदिरों के अलावा खिलौनों को दुकानों, बच्चों के डब्बों,कपड़ों , बर्तनों और न जाने कहाँ कहाँ आने लगा हूँ. माना की मेरा रूप अन्य भगवानों से अलग है पर हूँ तो मैं भगवान ही न!! चलिए इतना उपयोग मेरा ठीक है पर गणेशोत्सव के बहाने होने वाले मनोरंजक खेलों में तो आपने हद ही कर दी. अप्पको मालूम है अब मैं तम्बोला, तीन पत्ती यहाँ तक की जुआ तक खेलना सीख गया हूँ.ये सारे खेल आपने रातभर पंडाल में बैठ कर मेरे सामने खेलें है वहीँ से सीखा हूँ. आपको कोई ढंग का तरीका नहीं मिलता रात भर जागने के लिए. पंडाल की तेज़ और अनावश्यक रोशनी में आप न खुद सोते हैं न मुझे सोने देते हैं.


                      और अब आप मेरे कितने विचित्र रूप बनाने लगे हैं की मैं खुद को भी नहीं पहचान पाता. कभी  पुलिस वर्दी में, कभी फ़ुटबाल खिलाड़ी के रूप में, तो कभी सूट-बूट में. और सबसे बड़ी बात मिट्टी छोड़कर न जाने किस किस पदार्थ से मुझे बनाया जा रहा है. घी से, बर्फ से, सेल से, सिलेंडर से. पता नहीं कैसे कैसे. हे भगवान! हाँ और कैसी भयानक सजावट करते हैं आप..बड़े बड़े बंद पंडालों में, गुफाओं में बिठा देते हैं आप जहाँ मेरा दम घुटता है. अभी पिछले साल की ही बात है. मुझे एक ट्रक्टर पर बैठा कर उसे चालू कर दिया और मैं दस दिन तक लगातार ट्रक्टर चलाता रहा. लगातार. मुझे इतना क्रोध आया जितना की मुझे अपने पिता से युद्ध करते समय भी नहीं आया था.

                     
आप भक्तों के मुझ भगवान पर अत्याचारों की कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. अब तो आप मुझे अपने पापों में भी भागीदार बनाने लगे हैं. मेरा उत्सव मनाने के लिए बिजली की चोरी, अघुलनशील पदार्थों से निर्माण कर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने का पाप और मेरे नाम पर लिए गए चंदे का दुरुपयोग. अब तो आपका भगवान ही खुद को पापी महसूस कर रहा है. सो हे भक्तगणों अपने इस भगवान पर कृपा करो. मुझे इतने पंडालों. इतनी मूर्तियों, इतने रूपों, इतने खर्चे की आवश्यकता नहीं है. अगर आस्था रखनी है तो अपने दिल में रखो. मुझे भी थोडा भगवानोचित सम्मान दीजिये.इससे पहले की मुझे शक होने लगे की मैं भगवान हूँ या नहीं???!!

                                                                                                                आपका भगवान
                                                                                                                       गणेश
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